बहिनी मन, ए तो तुमन जानत होहु कि लइका मन हमर देस के भविष्य ल संवारथे। लइका मन के सउख ल देख के हमन ओखर भविष्य के नकसा बना लेथन। आजकल हमन देखथन कि हमर लइकामन के मन ह पढ़ई लिखई में जादा नइ लागय। का कारन ए-एला हमन सोचे बर मजबूर हो जथन।
लइका हर पहिली महतारी करा कुछू सिखते। लइका मन में पढ़ई लिखई के सउख बढ़ाय बर, लइका के महतारी ल घलो पढ़ना लिखना जरुरी हावय। महतारी ल देखके नान-नान लइका मन घलो पढ़ई में मन लगाहीं। महतारी हर अनपढ़ हो ही त नान नान लइका मन मं घलो पढ़ई लिखई के सउख नइं जागय।
पढ़े लिखे महतारी मन अपन लइका मन म बने आदत अउ सुध्घर संस्कार डारथें। जब तक हम लइका मन मं संस्कार नइ डारबो ओखर देख रेख बने ढंग से नइ करबो, तब तक लइका मन ह पढ़इ लिखई करेबर तैयार नइ होवय। जइसे हमन सुध्यर घर बनाथन, तब देख-देख के खिड़की कपाट, खपरा-छानही सब ल मजबूत अउ सुघ्घर बनाथन, ओइसने लइका मन ल घलो संवारे के हवय?।
छत्तीसगढ़ में लइका मं संस्कार बर एक ठन हाना जोर के कइथें-
‘जइसे जइसे घर द्वार, तइसे-तइसे फइरिका।
अउ जइसे-जइसे माइ बाप, तइसे-तइसे लइका।’
हमर देस म शिवाजी, गांधीजी, विवेकानंद, सरदार पटेल के नाम ह अमर होगे हे। एखर मन के संस्कार ल कोन बनइस? ओखर महतारी मन!! कमती पढ़े रिहिन हें, तभो ले ओखर महतारी मन कइसे सुन्दर आदत अऊ संस्कार डारीन। पढ़ई लिखई कोती ओखर मन ल लगइन।
ओइसने हमन ल घलो चाही कि अपन लइका मन के आदत अउ संस्कार ल बने बनायबर कोसिसे करन। बड़े बड़े महापुरुष के सुंदर-सुंदर उदाहरण दे दे के लइका मन मं पढ़ई लिखई कोती रुचि ल का हमन नइ बढ़ाय सकन? जरुर बढ़ाय सकथन।
यदि हमन अपन लइका ल डाक्टर बनाबो कइथन तब ओइसने ढंग के वातावरण बनाय ल लागही। अगर अपन लइका ल हम इंजीनियर या किसान बनाना चाहथन अउ दिन रात डाक्टरी के संबंध में बात करबो, तब कइसे ओ लइका हर इंजीनियर या किसान बनहीं? ओखेर मन ह घलो डाक्टरी डाहर खिंचाही।
लइका मन ल पढ़इ लिखइ में बने ढंग के लगाय बर, ओइसने ढंग के वातावरण, ओखर रुचि के मुताबिक बेवहार अऊ सिक्षा देयले लागथे। नहीं ते ओइसने हालत होही जइसे-
‘रात भर गाड़ी जोते कुकदा के कुकदा’
लइका अउ करम ल दोस देना बिरथा ये। काबर?
‘चलनी में दूध दुहै अउ करम ल दोस देय।’
लइका मन पढ़े बर तो पढ़ लिही, फेर कढ़े नइ सकये लइका में संस्कार अउ बने आदत नइ डारिस ते काय फायदा? आजकल के बड़े-बड़े लइका मन के रंग ढंग ल देख के ये कहे के मन लागथे-
पढ़े लिखे बने करे तोर चाल म कीरा परे।
फेर कंहव नइ। काबर? अकेला लइका मन दोसी नोहय देस के पूरा वातावरण अउ महतारी के डारे संस्कार ह दोसी हवय- हमर छत्तीसगढ़ मं कहावत हे-
रानी के बानी, अउ चेरिया के सुभाव? छूटे के नोहे।
का मतलब? जेकर जइसन संस्कार लइकइ में पर जथे तेकर सुभाव जिनगी भर ओइसने बने रइथे। ओइसने ढंग के लइका मन मं जइसना संस्कार महतारी मन ह डारही लइका ह ओइसने सुभाव के बनही। नान-नान लइका मन के पहिली गुरु महतारी होथे। ये ह महतारी के काम आय कि लइका मन पढ़इ लिखई के सउख बढ़ाय बर अइसन उपाय करय जेमे
ओखर रुचि बाढ़य, अऊ दिमाग मं बोझ झन बाढ़य खेल-खेल में सिक्षा देय ले, लइका मन जल्दी सीखथें। लइका मन ला जुबानी ज्यादा पढ़ाए लिखाए के ए जबानी प्रश्नोत्तर अउ खेल खेल में सिक्षा देय ले लइका मन मं लिखइ पढ़इ के सउख बाढ़थे।
जउन लइका मन पढ़ लिख नइ सकय तउन मन खाली बात जादा करथें। उहू बात मं गहराई नइ रहाय तब हमर सियान मन अइसना लइका ल फटकार के कइथे-
‘पढ़े बर न कढ़े बर। गोठ करे बर चटर चटर’
आधा तो हमन लइका मन ला जादा मया मं बिगाड़ डरथन। जादा दुलारे ले घलो लइका मन बिगड़ जथे। अउ पढ़े के मन नइ करंय बहुत जादा मारे पीटे ले घलो लइका के मन में पढ़ई लिखई के डर समा जथे। तहां ले आगू चल के पढ़इ लिखइ म नइ रहाय। कभु-कभु लइका के मन राखे बर पड़थे। कभु-कभु ओ मन ला अनुशासन में लाय बर डांटे के
जरुरत घलो पड़थे। कभु-कभु लइका मन पढ़इ के डर के मारे घर मां झूठ बोलथें। अइसना स्थिति मं मां बाप ला चाही कि स्कूल मां जा के असली बात के पता लगावय। पता नइ लगाही ते ओखर मन में बहाना बनाय, झूठ बोले के आदत पड़ जही अउ लिखइ पढ़इ मां मन नइ लागही।
आजकल नान-नान लइका मन ला घर मां लिखेबर अतेक जादा काम देथें कि घर मां उही लिखइ (होमवर्क) करत-करत बीत जाथे अउ खेले कूदे बर कमती समय मिलथे। छोटे उमर के लइका मन ला खेले कूदे के समय जादा मिलना चाही। स्कूल में घलो दिन भर कक्षा में झन बइठारय। नहीं ते ओखर मन मां पढ़े के इच्छा खतम हो जाहय। लइका मन ला स्कूल डहार ले जगह-जगह घुमाय-फिराय बर जरुर ले जाना चाही। तब पढ़इ लिखइ के सउख लइका मन में बाढ़ही।
कालेज पढ़इया लइका मन के बारे में जब हमन सोचथन, तब ये सोचे बर मजबूर हो जथन कि हमर देस के सबो वातावरण ल खराब बनाय बर कोन ह दोसी हावय?
सासक, मां बाप अउ शिक्षक। सबोझन ला मैं दोसी मानथौं। एकरे सेती लइकामन के मन ह पढ़इ लिख म नइ लागय। शासक हर अगर खुद अनुसासन में रइहि तभे तो लइका मन हा ओमन ला देख के कुछ सिखहि।
दूसर बात- मां बाप मन घलो नइ जानय कि घर ले बाहिर ओखर लइका मन का करथें। स्कूल कालेज जाथे कि नइ जाय, मां बाप ला घलो चाहि कि लइका मन ऊपर अंकुस राखय पहिली के लइका मन अतेक उतलंग (उद्दंड) नइ करत रिहिन ए। मां बाप ला आज समय घलो नइ मिलय अपन लइका मन ला देखे बर, समझे बर। तीसर बात- स्कूल कालेज मं पढ़इ अउ परीक्षा के रंग ढंग घलो ह बने नइये। कोनों डाहर अनुसासन नइ दिखे। आजकल के लइकामन के हालत ल देख के इही कहेबर पड़थे।-
‘आंटी ऊपर बांटी मारे। छानही उपर होरा भूंजै।’
आजकल के शासक अऊ राजनीतिक नेता मन ला देख के देस के लइका मन के संस्कार अउ लच्छन के अंदाज लगा सकथन-
‘अपन रहे जइसना। तइसने दय ढपना।’
अउ दूसर डहर मां बाप मन के ये हालत हावय कि-
‘कसूर ला पतियाय नहिं काम ला दोस देय।’
कालेज अउ हाई स्कूल वाले लइका मन मं लिखइ पढ़इ के सउख कइसे बाढ़य? पहिली बात- तो ये कि देस भर में अनुसासन कायम होवय। राजनीतिक नेता मन लइका मन के सिक्षा में रुचि लेवंय। ये नइ कि ओ मन ला बात बात में राजनीति में खीचैं। दूसर बात- देस भर में माध्यम, बिसय, पाठ्यक्रम अउ परीक्षा के हर तिथि ह एक हो जाय।
तीसर बात- सिक्षा बेवहारिक जादा होवय, सैद्धांतिक कम।
चौथइया बात- मां बाप अउ सिक्षक दूनो झन मिलके लइका मन के लिखइ पढ़इ म रुचि लगावयं। लइका मन के समस्या ला जाने के कोसिस करंय। पढ़इ अइसन ढंग के होवय कि इसकूल कालेज ले निकले के बाद लइका मन कुछ धंधा मं तुरंत लगे जाय। धंधा के खिंचाव में लइका मन के धियान हर पढ़ लिखइ में लागहि।
नान-नान लइका ल स्कूल में जादा समय तक झने राखे जाय। पुस्तक कापी के जादा बोझ ह लइका मन के मन में पढ़ई कोती ले उदासी भर देथे। ओ हर पढ़ई ल बोझ समझ के पढ़थे। छोटे कक्षा म कमती बिसय पढ़ाय जाय, अउ स्कूल में रहे के समय ला कमती करय सबसे बड़े बात तो ये होना चाही कि लइका मन संग सिक्षक के बेवहार हर अतेक प्रेमपूर्ण अउ आदर्स रहय कि लइका के मन हर घेरी बेरी स्कूल कोती खिचंत चले जाय अऊ पढ़इ लिखइ में ओखर मन लागय। आजकल सबो झन व्यस्त हावय। सिक्षक करा ओतक समय नइ राहय कि वो हर अपन पूरा समय लइका मन ल देवय लइका मन के मां बाप मन घलो अपन लइका मन कोती थोरकिन ध्यान देवयं तब लिखइ पढ़इ के सुख जागही।
घर के वातावरण ल घलो अइसे बनाके रखंय कि फालतू बात में कमती ध्यान जाय। मां बाप मन खाली सगा पहुना के आव भगत मं लगे रइथें, नहि ते दिन-रात घर में जमघठ लगाय रइथें, तब लइका मन के धियान ह पढ़इ में नइ लागय। ओ मन एती-तेती भटक के गुमराह हो जथें। फेर बाद में पछताय ले का होही।
सुने होहु बहिनी मन-
‘खातू पड़े तो खेती। नइ तो नदिया के रेती।’
लइका मन बर घलो इही बात लागू होथे। सासक शिक्षक अस मां बाप, सबो झन मिलके लइका मन बर वातावरण अगर नइ बनाबों त लइका मन नदिया के रेती सहीं बोहा जहीं। अउ हमन चिल्लाबो देख-देख के-
‘चार बेटा राम के कौड़ी के न काम के।’
देस मं नवा राज आगे हे अब। हमर मन के लइका मन हा पढ़इ लिखइ डहार अगुवावय अउ सबके जिनगी बन जाय- इही बात में हर चाहथौं बहिनी।
बेरा जुरथे, जय हो!!
– सत्यभामा आड़िल
(Satyabhama Adil आकाशवाणी रायपुर ले Chhattisgarhi भाषा वार्ता के रूप में प्रसारित वार्ता के संकलन ‘गोठ Goth‘ ले साभार)